Sunday 7 October 2012

उत्तराखण्ड में ऊन से संबधित हस्तशिल्प की तकनीक तथा उत्पाद (19th Century)



             
          वस्त्र निर्माण के अन्तर्गत भोटांतिक क्षेत्रों में निर्मित किये जाने वाले ऊनी वस्त्रों में हस्तशिल्पियों के कला कौशल का अत्युत्तम रूप उभर कर आया है। ट्रेल के अनुसार पैनखण्डा] नागपुर] दसौली] बधाण] जोहार] दारमा] ब्यांस] चैदांस] अस्कोट आदि क्षेत्रों में भेड़ पालन अधिक होता था और ऊन तैयार की जाती थी। इसके अतिरिक्त तिब्बत से भी ऊन का आयात होता था। इससे कम्बल] पंखी] कालीन] पट्टू] थुलमे आदि बनाये जाते थे। सभी वर्गों की महिलायें बुनाई का कार्य करती थीं और पुरुष धागा तैयार करते थे। विक्रय के लिये इन्हें बरमदेव मण्डी] रामपुर] बागेश्वर] श्रीनगर] देहरा] हरद्वार और नजीबाबाद तक भेजा जाता था। मोटा सूती कपड़ा छोटे पैमाने पर बनाया जाता था। चन्द राजाओं तथा बाद में गोरखाओं द्वारा करघे पर कर (टांडकर लगाया गया था। दारमा-ब्यांस तथा अन्य उत्तरी परगनो के अलावा टिहरी राज्य में भी ऊनी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था। नेलङ्] जाड़ङ् और बागौरी के जाड़ जनजाति  के लोग ऊन के उत्तम वस्त्र] कम्बल] चुटका] दुमकर] गुदमा] कालीन] आसन आदि का निर्माण करते थे। टकनौर के गाँवों में भी दुमकर] गुदमा] कालीन] कम्बल आदि बनते थे। रवाईं में बनाए गये कम्बल] दुमकर] गुदमा] चुटका तथा पट्टू अपनी बारीकी और सुन्दरता के लिए विशेष प्रसिद्ध थे। बंगाण मे ढावलीया एक विशेष प्रकार कम्बल] बनाये जाते था। भंकोली तथा रवाँईं में बिछाने की कौंटू] फ््र्याँरी (मांदरी] बनती थीं।
       भेड़ों के शरीर से उतारी गयी ऊन से वस्त्र आदि के निर्माण के लिये उसे तन्तुओं के रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया के अन्तर्गत पहले उसे गरम पानी में डुबो कर तथा बांस के डण्डे से भली-भांति कूट.पीस कर उसके परस्पर चिपके हुए बालों के रेशों को अलग-अलग कर लिया जाता है। इसके बाद आवश्यकतानुसार मोटे-पतले रूप में तकली में कातकर गोले बना लिये जाते हैं। पुनः इनकी लच्छियाँ बनाकर उन्हें एक चर्खी के माध्यम से अपने देशी राँचकरघे में बुना जाता है। अपेक्षित होने पर इन धागों को स्वनिर्मित स्वदेशी रंगों से रंग कर इन्हें बनाने वाली कुशल कलाकार महिलाओं के द्वारा अपनी शिल्पकला के माध्यम से इच्छित रूपों में बुन लिया जाता है। कलाशिल्प की दृष्टि से कालीन का निर्माण सबसे अधिक जटिल एवं कलात्मक होता है। इसे बनाने के लिए पहले कालीन की अपेक्षित लम्बाई के अनुसार 25 सेमी-लम्बी तथा 1 सेमी- व्यास की लकड़ी या लोहे की छड़ ]जिन्हें स्थानीय बोली में पुसिङ् कहा जाता है]ली जाती है कम से कम 6 होती है। इन्हें एक विशेष व्यवस्था के अन्तर्गत]अर्थात एक ओर जो तीन पुसिङ् गाड़े जाते हैं] उनमें से दूसरे और तीसरे को अन्त में बीच की ओर गाड़ा जाता है। कालीन] चुटका] दन या आसन के अपेक्षित आकार के हिसाब से इन पर मोटे सूत को आधार भूमि प्रदान करने के लिये मोटे धागे के क्रासिंग फन्देनुमा धरातल डाले जाते हैं। उपलब्ध विवरण के अनुसार 45 सेमी- वर्गाकार आसन के लिये 130 से 140 तक क्रासिंग डाले जाते हैं] किन्तु 180 सेमी- लम्बे तथा 90 सेमी-  चैड़े कालीन के लिये 250 से 260 क्रासिंग तक(फन्दे डालना आवश्यक होता है। बुनाई के दौरान राँच&खड्डी पर चढ़ाने से पूर्व एक नियत व्यवस्था के अन्तर्गत प्रथम क्रासिंग को निकालने के बाद उसमें एक मोटा सूत डाल दिया जाता है द्वितीय के बाद एक जुम्मर (निंगाल की डंडी  तथा तृतीय के बाद एक मोटी लेड़ी डाल दी जाती है। इस प्रकार इन्हें व्यवस्थित कर दिये जाने के बाद इन सबको बुनाई करने वाली लड़की के उस यंत्र में डाल देते हैं] जिसे राँच कहा जाता है तथा जिसमें लगी 10 सेमी-  मोटी दो बेलनें (चीरा& धुरी पर घूनती बुई गलीचे की बुनाई करती हैं। बुनाई को ठोस] सघन करने के लिए पतले बाँस या उसी के समान मेस नामक वनस्पति की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है] जिसे कांसना कहते हैं। ऐसे ही राँच पर कालीन को बुनते हुए तानों को कसने तथा उन्हें सघन करने के लिये जानवरों के नाखून की तरह मुड़े हुक वाले बु्रश का प्रयोग किया जाता है। कालीनों] दनों] चुटकों की बुनाई में प्रयोग लायी जाने वाली राँच एक स्थान पर स्थिर भी हो सकती है] स्थानान्तरणीय भी। सामान्यतः मुन्स्यारी-जोहार में यह प्रथम प्रकार की तथा धारचूला के पूर्वी क्षेत्रों में यह द्वितीय प्रकार की होती है। व्यावसायिक दृष्टि से प्रथम प्रकार की राँच पर बने कालीनों को अधिक अच्छा माना जाता है। कालीनों में विशेष प्रकार की डिजाइनों को बनाने तथा किनारों पर पट्टियाँ डालने के लिये रंगीन तंतुओं का प्रयोग किया जाता है। पहले लोग श्यामा (एक प्रकार की घासीय वनस्पति की जड़] डोलू तथा अखरोट की छाल से स्वयं ही प्राकृतिक रंगों को बना लिया करते थे। श्यामा की जड़ों को कूटकर ताँबे के बर्तन में पकाकर उसमें नमक डाल देने से लाल रंग तैयार हो जाता था। ऐसे ही नमक और सुहागा डाल कर डोलू और अखरोट की छाल से सुंदर] पक्के रंग तैयार किये जाते थे। इस प्रकार तैयार किये गये ये प्राकृतिक रंग पक्के चटकदार होते थे कि इनसे रंगे दनों] कालीनों]  चुटकों का वर्षों उपयोग किये जाने पर भी ये रंग फीके नहीं पड़ते थे।
       ऊन तिब्बत से आयातित तथा स्थानीय दोनों प्रकार की थी। वाल्टन ने अल्मोड़ा गजेटियर में उल्लेख किया है कि इसे गर्म पानी में डुबाकर कूटने के बाद बुना जाता था। बुनाई हाथ से होती थी] जिसमें तकली या कतुवा की सहायता ली जाती थी। दो किस्म का धागा बुना जाता था। मोटे वस्त्र के लिए इकहरा और पतले वस्त्र के लिए दो धागे बँटे जाते थे। बुनाई का काम स्त्रियाँ करती थीं। भोटांतिक क्षेत्र में ऊनी वस़्त्र बुनने की कला अत्यधिक विकसित हुई। यहाँ विशेष प्रकार के चबूतरे या राँठ होते थे] जिनमें आस-पास की स्त्रियाँ तथा बालिकाएँ एकत्र होकर अपने वस्त्र बुनना सीखती थीं। 1909 में अल्मोड़ा में बुनाई का एक विद्यालय खोला गया] जहाँ प्रारंभ में तीस छात्र थे। कुछ भोटान्तिक भी इसमें प्रशिक्षण के लिए शामिल हो रहे थे। गंगोत्री गब्र्याल ने उल्लेख किया है कि कता ऊन का ताना-बाना चान कहलाता है। एक कतार में चान बुनती बुई महिलाएँ अपने-अपने काम में बड़ी व्यस्त रहती थीं। वे अपने हाथ से बहुत महीन ऊन कातकर, बुनकर, रंगाकर बेलबूटों से अलंकृत च्यूंग बाला पहना करती थीं।

  एस- डी- पंत ने सोशियल इकाॅनाॅमी आॅफ हिमालयन्स में उत्तरी क्षेत्रों]  विशेषकर भोटान्तिक क्षेत्र में बुनी जाने वाली प्रमुख ऊनी वस्तुओं का विवरण दिया है-
  पट्टू-इसकी लम्बाई प्रायः चार हाथ होती थी। इसे अधिक चैड़ा नहीं बनाया जाता था, क्योंकि इसके लिए बुनकर को अधिक श्रम करना पड़ता था। एक पट्टू का मूल्य 6 से 10 रू0 तक था। अन्य धागों की अपेक्षा पट्टू को बुनने में अधिक समय लगता था।
  थुलमा- मोटे ऊनी कम्बल थे। इन्हें पट्टू की तरह ही बुना जाता था। एक थुलमा बनाने में छः से आठ दिन लगते थे तथा छः से लेकर बारह सेर तक ऊन लग जाती थी। काले थुलमे अधिक महंगे थे। ऊन की चमक] किस्म आदि के आधार पर इनका मूल्य भी भिन्न-भिन्न होता था।
  पंखी- कम्बल से मोटाई में कुछ कम होता था। इसकी रंगाई प्रायः नहीं की जाती थी। वजन तथा मूल्य थुलमे से कम होता था और प्रायः मध्यवर्गीय स्त्री-पुरुष इसका उपयोग करते थे।
 चुटका-ये मोटे दन  होते थे। इनका आकार थुलमे के बराबर होता था] पर मूल्य थुलमे से कुछ कम था। धागे को पहले धोकर फिर बुना जाता था। दारमा और ब्यांस के भोटान्तिक इसे अधिक बुनते थे।
 दन- छोटे गलीचे थे। इन्हंें विभिन्न रंगों से रंगा जाता था। धागे को बुनने से पहले धोकर रंग लेते थे। रंगों का निर्माण वनस्पतियों से किया जाता था। इनका मूल्य 10 रू0 से 20 रू0 प्रति जोड़ा था। इनका प्रयोग बड़े गलीचों के ऊपर बिछाने या धूप में बैठने के लिए करते थे।
 आसन-  प्रायः चैकोर होते थे और लम्बाई दन की आधी होती थी। मूल्य 3 रू0 से 6 रू0 प्रति जोड़ा था।
 करबोजा- छोटा थैला था] जिसमें ऊन की दो जेबें होती थीं। इसका प्रयोग भेड़ तथा बकरियों की पीठ पर सामान लादने के लिए किया जाता था। बनाने से पहले ऊन को दुहरा कर लेते थे।
 पश्मीना- कभी-कभी पश्म ऊन (पश्मीना नामक बकरी से प्राप्त अच्छे किस्म के शाॅल भी बुने जाते थे, जिनका मूल्य 20 रू0 से 60 रू0 तक था। 
ऊनी जूते- दारमा और ब्यांस के लोग घुटनों तक पहुँचने वाली ऊनी जूते भी बुनते थे। इन्हें विभिन्न रंगों और आकृतियों से सजाया जाता था। इनका मूल्य 4 रू0 से 6 रू0 तक था।

                                      
                
भोटांतिक क्षेत्रों में निर्मित किये जाने वाले ऊनी उत्पादों  में हस्तशिल्पियों के कला कौशल का अत्युत्तम रूप उभर कर आया है। औपनिवेशिक नीतियों के अन्तर्गत प्राकृतिक संसाधनों पर राज्य का अधिकार और विस्तार बढ़ने से भारत के अन्य भागों की तरह ही उत्तराखण्ड के कुटीर उद्योगों का भी ह्रास हुआ।  यद्यपि ब्रिटिश कारखानों में निर्मित वस्तुएँ हस्तशिल्प के मुकाबले कहीं अधिक सस्ती थी। फिर भी तिब्बत से आने वाले सामान्य मोटे ऊन का आयात बाद के वर्षों में भी यथावत रहा। 1907 में जोहार- दारमा तथा ब्याँस के मार्गों से केवल दो लाख रुपए की ऊन का आयात किया गया। नीती घाटी से होने वाले ऊन के आयात में एक-तिहाई  कमी आई और माणा के मार्ग से होने वाला आयात बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक काफी कम हो गया। ऊन के कारोबार को सर्वाधिक हानि भारत-चीन युद्ध के दौरान हुई।  वर्तमान में भी मशीन से निर्मित अपेक्षाकृत काफी सस्ते उत्पादों से प्रतियोगिता के कारण ऊन तथा अन्य तंतुओं से संबन्धित हस्तशिल्प के अस्तित्व पर  संकट है। फिर भी स्थानीय स्तर पर आवश्यकता की वस्तुओं का निर्माण आज भी होता है। परंपरागत रूप से चली रही ऊन के उत्पादों से संबन्धित तकनीक में केवल इतना ही अन्तर आया है कि कताई से पहले ऊन को धोने की प्रक्रिया के बाद उसे  अलग करने के लिए जहाँ पहले कंघेनुमा ब्रुश का प्रयोग होता था] वहीं वर्तमान में कार्डिंग प्लांट का प्रयोग होने लगा है। उद्योग विभाग] जनजाति विभाग] खादी बोर्ड आदि के द्वारा स्थानीय निवासियों को कच्चा ऊन दिया जाना भी बन्द कर दिया गया है। उसके स्थान पर अब ऋण दिये जाने लगे हैं। पर्वतीय अंचल में उत्पन्न होने वाली बिच्छू घास के रेशों को भी वस्त्र निर्माण के लिए प्रयुक्त किए जाने का प्रयास हो रहा है, परंतु अभी यह बड़े पैमाने पर सामने नहीं आया है।  उत्तराखण्ड के इस हस्तशिल्प की मूल्यवान विरासत को संरक्षित करने तथा शिल्पियों द्वारा अपनायी जाने वाली तकनीक का वर्तमान तकनीक के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए संवर्धित किये जाने की आवश्यकता है।

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