Saturday 11 February 2012

तालेश्वर -उपेक्षित इतिहास की बानगी



                                  
                                                                       तालेश्वर
                                                     उपेक्षित इतिहास की बानगी
                उत्तराखण्ड के भीतर अनेक स्थान पुरातात्विक महत्व के हैं। वर्तमान में यदि इन स्थानों में गम्भीरता के साथ उत्खनन के प्रयास किए जायँ तो इस अंचल के इतिहास के अनेक अनछुए पृष्ठ हमारे सामने खुलेंगे। राज्य के विभिन्न स्थलों में किसी किसी कारण हुए उत्खनन के परिणामस्वरूप कुछ पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक चीजें सामने आई हैं, जो खबर भी बनीं, पर इससे आगे इसके बारे में कोई कार्यवाही हुई हो लगता नहीं है।        
               ऐसा ही एक सच अल्मोड़ा जनपद के तालेश्वर (देघाट) के बारे में है। सन् 1915 में एक खेत की दीवार के लिए नींव खोदते समय छठी शताब्दी के ब्रह्मपुर (ताम्रपत्रों में उल्लिखित पर्वताकर राज्य) नरेशों द्विजवर्मन (द्युतिवर्मन) एवं विष्णुवर्मन के दो ताम्रपत्र उपलब्ध हुए थे। इनकी भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। पुरालिपि के आधार पर  इन ताम्रपत्रों में अंकित राजमुद्रा की लिपि पाँचवीं शताब्दी की और उनके पाठ की लिपि छठी शताब्दी के मध्य की अनुमानित की गई है और गुप्तलिपि से साम्य रखती है। (गुप्ते, वाई.आर. एपिग्राफिका इण्डिका, खण्ड 13, पृष्ठ 112.120)
          ये ताम्रपत्र पुरातत्वविदों  और इतिहासविदों के लिए एक महत्वपूर्ण खोज के रूप में सामने आए। कालान्तर में यह पूरा मामला एक ऐतिहासिक धरोहर से आगे नहीं बढ़ पाया। वास्तव में तालेश्वर ताम्रपत्रों को इतिहास में जगह देने और उनका महत्व समझने में किसी भी इतिहासविद से ज्यादा वहाँ के ग्राामीणों का योगदान था।  ऐतिहासिक महत्व के ये ताम्रपत्र इतिहास जानने के प्रयोजन से किए गए किसी उत्खनन् से नहीं वरन् ग्रामीणों द्वारा खेत को आकार देने के लिए बनाई जा रही दीवार को निर्मित करने के दौरान खुदाई में प्राप्त हुए। इसके पश्चात इन्हें ग्रामीणों द्वारा एक पुरानी धातु, जिसमें कुछ अंकित था, मानकर समीप स्थित शिव मन्दिर में रख दिया गया। साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले तालेश्वर गांव के निवासी सदानन्द  शर्मा (खकरियाल) ताम्रपत्र के पुरातात्विक महत्व को समझते हुए उसे दिल्ली ले गए।
यह सन्  1962.63 की बात है। (उस समय की दुर्गम स्थितियों और आर्थिक अभावों में दिल्ली तक जाना, वह भी ऐसी चीज के लिए जिसके बारे में पूरी जानकारी ही हो, अपने .आप में कम महत्व की बात नहीं थी) दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय ने जब उसे उत्तर प्रदेश राज्य का मामला बता उन्हें राज्य संग्रहालय, लखनऊ से संपर्क करने को कहा तो सदानन्द शर्मा आर्थिक अभावों के चलते तत्काल लखनऊ नहीं जा पाए और ताम्रपत्र लेकर वापस गाँंव गए। कुछ समय पश्चात् जब पैसों का इन्तजाम हुआ तो वह तत्कालीन राज्य संग्रहालय लखनऊ पहुंचे, जहां ताम्रपत्रों को अति महत्वपूर्ण मानते हुए इन्हें सरकारी प्रक्रिया के तहत ही लेने की बात हुई। इस कारण वह ताम्रपत्र के साथ पुनः तालेश्वर लौट आए। जब राज्य संग्रहालय लखनऊ ने इस मामले में राज्य सरकार के माध्यम से जिलाधिकारी अल्मोड़ा से संपर्क किया तो जिलाधिकारी अल्मोड़ा के निर्देश पर उप जिलाधिकारी पाली-पछाऊँ ने पटवारी (नाथूराम) को ताम्रपत्र प्राप्त करने का निर्देश दिया। यह 1963 की बात है। यहाँ इस पूरे प्रकरण को इसलिए लिखा जा रहा है, क्योंकि इतिहास में स्थानीय लोगों की महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। लेकिन यह भागीदारी इतिहास को सामने लाने के योगदान के क्रम में कहीं भुला दी जाती है। 
      ऐसी ही एक घटना पुनः तालेश्वर में सामने आई है, जब  एक बार फिर मन्दिर प्रांगण के आस.पास निर्माण के दौरान उत्तराखण्ड के इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण चीजें सामने रही हैं। इनका अवलोकन करने पर लगता है कि यदि इस क्षेत्र में कार्य आगे बढ़ाया जाता है तो तालेश्वर और उत्तराखण्ड के बारे में अब तक भविष्य के गर्भ में छुपे बहुत सारे तथ्य सामने सकते हैं। यह भी संयोग ही है कि इसे भी सामने लाने, इतिहासविदों एवं पुरातत्ववेत्ताओं को जानकारी देने में सदानन्द शर्मा के पुत्र पुरूषोत्तम शर्मा की कोशिश रही है।  
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        दीवार और्र इंटों को देखने के बाद इतिहासकार और पुरातत्वविद् ताराचन्द्र त्रिपाठी का मानना है कि संभवतः र्ये इंटें कुषाणकालीन हों। उनके अनुसार इस तरह की ईंटों से निर्मित भवनों के अवशेष दूधातोली बिनसर में वन विभाग की चौकी के पास भी मिलते हैं। इस प्रकार के अवशेष कुमाऊँ में नौला. जैनल, चौखुटिया, बग्वाली पोखर, मनसारी नौला इत्यादि स्थानों पर भी मिले हैं। गढ़वाल में भी कई  स्थानों, जैसे लाखामण्डल, देवली आदि में इसके प्रमाण मौजूद हैं। इसी क्रम में यदि तालेश्वर ग्राम में दीवारों के आस.पास उत्खनन आगे बढ़ाया जाता है तो संभवतः ऐसे महत्वपूर्ण सूत्र प्राप्त हो सकते हैं ,जिससे कुषाण और गुप्तकालीन उत्तराखण्ड के इतिहास को अधिक स्पष्ट और समृद्व किया जा सकता है। तालेश्वर का इतिहास लगभग 350 वर्ष पुराना है (बसासत के आधार पर) लोक जानकारी के अनुसार नए तालेश्वर में सबसे पहले पंत आए,जिनको अभी 8.10 पीढ़ियाँ हुई हैं। इसके पश्चात बडियारी (रावत) यहां आए। इसके कुछ ही समय पश्चात खकरियाल परिवार तालेश्वर में आए। इनकी अब सातवीं पीढ़ी यहाँ रह रही है।



शिव मन्दिर से लगभग 300 मीटर दूरी पर 1414 फीट का तालेश्वर कुण्ड है। इसे आठ बड़े.बड़े पत्थर के पटालों से निर्मित किया गया है। चारों ओर से बीच में इन्हें पत्थर के स्तम्भों से एक दूसरे से जोड़ा गया है। शिव मन्दिर के निकट ही बंजर खेत में एक भव्य दो हाथधारी गणेश प्रतिमा मिली है। यह अब मन्दिर के मुख्य द्वार पर स्थित है। इस खेत में अभी भी छोटे-छोटे पत्थरों के टुकड़े निकलते हैं। ग्रामीण इस जगह को प्राचीन समय में मूर्तियों,मन्दिर,महल के लिए पत्थरों की तलाशी वाले स्थान के रुप में चिह्नित करते हैं। यही नहीं, मन्दिर प्रांगण के निकट ही पत्थर से तराशा हुआ एक विशाल बुर्ज मौजूद है, जो वर्तमान मन्दिर के छोटे ढांचे से मेल नहीं खाता। बुर्ज का टूटा हिस्सा उसकी विशालता के कारण इस ओर संकेत करता है कि इस स्थान पर कभी कोई भव्य मन्दिर रहा होगा। इस बुर्ज की गहरी सफाई भरी नक्काशी किसी का भी बरबस ध्यान आकर्षित करती है। मन्दिर के पास ही एक बंजर टीला मौजूद है। इस टीले के बारे में ग्रामीणों का कहना है कि इस जगह से लगातार ईटें मिलती रहती हैं। ईटों के ही संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि इस पूरे क्षेत्र में बड़ी-बड़ी ईटें खेतों की दीवारों में चिनी नजर आती हैं, जिन्हें ग्रामीणों द्वारा अपने खेतों को सुधारने के क्रम में दीवारों में चिन दिया गया। इस तरह की चिनाई मन्दिर के आस.पास स्थित खेतों के साथ ही मन्दिर के ऊपर पहाड़़ी पर स्थित खेतों में भी है। इस जगह पर बहुतायत र्में इंटें मिलने के कारण ग्रामीण इसे भट्टी कहते हैं। तालेश्वर पहुँचने से पहले लाल नगरी गाँॅव आता है। इसके ठीक नीचे एक विशाल टीला मौजूद है। इस टीले पर अभी तराशे हुए बड़े.बड़े प्रस्तर स्तंम्भ मौजूद हैें, जो आकार में किसी बड़े निर्माण का हिस्सा लगते हैं। इसके अतिरिक्त इस पूरे क्षेत्र में विभिन्न देवी.देवताओं की प्राचीन मूर्तियां भी मिली हैं। कई शिलालेख और खुदाई में कुछ बर्तनों के टुकड़े भी निकले हैं। तालेश्वर के ठीक सामने स्थित घुघुतिया कैलानी गाँंव के निकट कुछ वर्ष पूर्व हुए भू.स्खलन में तांबे के बर्तन     एवं स्वर्ण छल्ले मिले हैं।
         तालेश्वर में दीवार मिलने की जानकारी पर इतिहासकार तारा चन्द्र त्रिपाठी इस स्थान की ऐतिहासिकता जानने के लिए यहां उत्खनन जरुरी मानते हैं। श्री त्रिपाठी के अनुसारतालेश्वर या तालधार अपेक्षाकृत दुर्गम स्थल है। इसके समीप ही चम्याड़ी नामक स्थान पर तीन छोटे-छोटे मन्दिर हैं, जिनमें पूजा का विधान नहीं है,क्योंकि ये देवकुल या पितरकुड़ी हैं। इनमें से एक मन्दिर के द्वार पर आठवीं.नवीं शताब्दी का एक लेख भी विद्यमान है। चम्याड़ी से नीचे बसनल गाँव मिलता है जो संभवतः ब्रह्मपुर नरेश विष्णुवर्मन के नाम पर रहा होगा।
         तालेश्वर दानपत्रों में ब्रह्मपुर (जिसका चीनी यात्री ह्वेनत्सांग द्वारा पो.ली.ही-मो.पू.लो के नाम से उल्लेख किया गया है) नरेशों के कुल देवता वीरणेश्वर के मन्दिर को पूजा इत्यादि की व्यवस्था के लिए लगभग 160 गाँंव अग्रहार (गूँूंठ) में दिए जाने का उल्लेख  है। इस दृष्टि से उत्तराखण्ड के इतिहास के लिए इनका विशेष महत्व है। इन दानपत्रों के भूगोल का अध्ययन करने के बाद तारा चन्द्र त्रिपाठी बताते हैं कि प्रथम दानपत्र में इस बात का उल्लेख है कि इन दानपत्रों की पुनर्रचना अनेक पुराने दानपत्रों के अग्निकांड में भस्म हो जाने के कारण दोबारा करनी पड़ी। परिणामतः विभिन्न दानपत्रों को एक ही दानपत्र में संकलित करते हुए क्षेत्रवार स्थानों का उल्लेख मिलता है और दूसरे दानपत्र में क्षेत्रवार नाम के साथ.साथ भूमि की माप भी दी गई है।
           तालेश्वर एवं उसके आसपास की पूरी भौगोलिक संरचना एवं हाल ही में निकर्ली इंटों की दीवारें और पहले से विकीर्ण पुरातात्विक अवशेषों को देखते हुए इस क्षेत्र में पुनः खोज कार्य जरुरी लगता है। इस क्षेत्र में मिल रर्ही इंटें, बर्तन, आभूषण आदि इसके ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व को पुष्ट ही कर रहे हैं। मन्दिर प्रांगण में मिर्ली इंटों की दीवार से लगता है कि इस मन्दिर की मूल भित्ति का निर्माण दूसरी या तीसरी शताब्दी के बीच कभी हुआ होगा। यह स्थान ब्रह्मपुर नरेशों के युग में भी रहा होगा और मन्दिर का महंत इसी के आस.पास कहीं रहता होगा। संभव है कि यह ब्रह्मपुर नरेशों की एक समानान्तर राजधानी या दूसरी राजधानी भी रही हो।
          ये सारी संभावनाएँ ही हैं, इन्हें किसी धारणा या पुख्ता आधार देकर प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। लेकिन इतना जरुर है कि सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में तालेश्वर की तरह के सैकड़ों स्थान आज उत्खनन का इंतजार कर रहे हैं, जिससे कि यहां के समृद्ध ऐतिहासिक अतीत को सामने लाया जा सके। इसके लिए जहां राज्य सरकार का अपनी ऐतिहासिक धरोहरों के प्रति सजग और प्रतिबद्ध होना जरुरी है, वहीं पूरे इतिहास में आम जन की महत्वपूर्ण भूमिका को भी इतिहासविदों द्वारा स्थान दिया जाना अपरिहार्य है। इसी के चलते उत्तराखण्ड और जन दोनों का सही और तथ्यपरक इतिहास सामने पाएगा।  
         जनपक्ष आजकल के जनवरी -२०१२ अंक में प्रकाशित

1 comment:

  1. किरण जी, आपके द्वारा दी गयी सामग्री दुर्लभ और रुचिकर है , आगामी लेखों की प्रतीक्षा रहेगी ..
    शुभकामनायें आपको

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