Wednesday 21 December 2011

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य और गाँधीवादी मॉडल की प्रासंगिकता






         प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चन्द्र के अनुसार ’’ आज भारत की एक महत्वपूर्ण कमजोरी राजनैतिक व्यवस्था को चलाने में उसकी अक्षमता दृकिसी एक ढांचे अथवा रणनीतिक सिद्धांत के न होने से उत्पन्न होती है, जिसके अर्न्तगत राजनैतिक व्यवस्था को रखा, समझा और संचालित किया जा सकता है।‘‘ गांधी जी के पास देश के बारे में अपनी एक स्पष्ट राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक समझ थी। वह राष्ट्र को स्वदेशी, ग्राम स्वराज या पंचायती राज के आइने में देखते थे और इसीलिए उनका जोर विदेशी सेे इतर हमेशा स्वदेशी में रहता था।यह दुर्भाग्य ही था कि गाँधी के बाद उनके उत्तराधिकारी नेहरू उनके राजनैतिक तथा आर्थिक विचारों से असहमत थे और यह बात  दोनों के बीच हुए पत्र व्यवहार से भी स्पष्ट हो जाती है। गाँधी के विपरीत नेहरू पूँजीवाद और समाजवाद पर आधारित मिश्रित अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे। नेहरू द्वारा देश को दी गई यह दिशा कालान्तर में पूँजीवाद के साथ अधिक से अधिक एकरूपता कायम करने के अतिरिक्त वर्तमान दौर में पूँजीवादी वर्चस्व के मॉडल- वैश्वीकरण में अपने.आप को समाहित करने के रूप में सामने आई्र।
          वर्तमान में वैश्वीकरण के इसी मॉडल को अपनाने के कारण राष्ट्र के सामने हर मोर्चे पर चुनौतियाँ खड़ी हैं। गाँधी, जहाँ राजसत्ता में आम आदमी की हिस्सेदारी एवं कृषि ,व्यापार तथा उद्योग में उसकी सक्रिय भागीदारी का विचार प्रस्तुत करते हैं और इसी के माध्यम से आम आदमी के सशक्तीकरण और राष्ट्र निर्माण में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका तय करते हैं, वैश्वीकरण उसकी इस अस्मिता का पूरी तरह निषेध करते हुए उसे सिर्फ एक बाजार और उपभोक्ता के रूप में ही स्थापित करता है। वैश्वीकरण के मॉडल में उसके हितों की पूर्ति करने वाले एक खास वर्ग केा ही ध्यान मंे रखा जाता है। जो वर्ग इस दायरे से बाहर है, उसके लिए न राजसत्ता के पास कोई विचार है और न ही वर्तमान में वह इसके केन्द्र में है। राष्ट्र के भीतर आबादी का यही हिस्सा बहुसंख्यक रूप में उपस्थित है और वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में  विपन्न और उपेक्षित हालातों में जी रहा है।
         वर्तमान परिदृश्य में गाँधी के विचार आधुनिकता विरोधी लग सकते हैं, जिनमें वह पश्चिमीकरण को आधुनिकता का पर्याय मानने वाले भारतीय उच्च और मध्यवर्ग की विचारधारा के विपरीत आम.जन पर निर्भर एक ग्राम्य अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की बात करते हैं। गाँधी ने वैश्वीकरण के आधुनिक रूपों को समझने के लिए अपना एक सिद्धान्त विकसित किया और अपने तथा भारतीय समाज के साथ अनेक प्रकार के प्रयोग करने के बाद इसका प्रतिरोध करने के कई विशिष्ट तरीके भी खोजे। उनकी मान्यता थी कि एक सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में वैश्वीकरण आधुनिकता के जन्म के समय भी मौजूद था। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत असीमित उपभोग और नयी प्रौद्योगिकी के चलते जीवन के अन्य परंपरागत आयामों के नष्ट होने की उन्होंने तार्किक व्याख्या प्रस्तुत की।
        आज वैश्विक स्तर पर पूँजीवादी मॉडल भी अपने स्वाभाविक संकटों का सामना कर रहा है। 1929.30 की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के बाद पूरा विश्व एक बार फिर इसी भयावह मन्दी से त्रस्त है ेऔर इस व्यवस्था का समर्थक सुविधासम्पन्न उपभोक्ता वर्ग भी संकट में घिर चुका है।  21वीं सदी की इस चरम प्रगति के दौर में गाँधी के विचारों को व्यापक जन समुदाय के हित के लिए एक बार पुनर्परिभाषित किए जाने की जरूरत है। जिस समय गाँधी ने अपना हिन्द स्वराज का मॉडल प्रस्तुत किया , वह देश की आजादी के आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में एक आत्मनिर्भर देश के निर्माण का मॉडल था और तब उनके समक्ष मुख्य शत्रु के रूप में ब्रिटिश साम्राज्यवाद था, परंतु आज के बदले हुए परिदृश्य में विश्व के सभी राष्ट्रों में अन्तःक्रियाएँ तीव्र हुई हैं और कोई भी राष्ट्र परस्पर सहयोग के बिना समग्र विकास नहीं कर सकता। इस स्थिति में देश की संप्रभुता एवं आर्थिक आत्मनिर्भरता से बिना कोई समझौता किए हमें विभिन्न राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध कायम करने चाहिए। गाँधी के विचार के मूल में राष्ट्र एवं जन की आत्मनिर्भरता प्रमुख थी और यही राष्ट्र के सशक्तीकरण का प्रस्थान बिन्दु होना चाहिए।

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